Bajrang
साँझ का आसमान हल्के नारंगी से गहरे नीले में बदल रहा था और पहाड़ी शहर देवधर के बीचों‑बीच खड़े पुराने हनुमान मंदिर की चोटी पर लगी लाल पताका हवा में फड़फड़ा रही थी।
दूर‑दूर तक दिखने वाला वही झंडा इस छोटे शहर का सबसे ऊँचा निशान था – उसके ठीक पीछे अब एक नया, काँच‑लोहा वाला बिजली प्रोजेक्ट बन रहा था, जिसके बोर्ड पर मोटे अक्षरों में लिखा था – “स्काईलाइन एनर्जी – शहर का भविष्य।”
“भविष्य देख रहे हो, बजरंगी?”
पीछे से आती बाइक की हॉर्न के साथ आवाज़ गूँजी।
आर्यन ने पुल के किनारे से मुड़कर देखा – नीली जैकेट, हेलमेट आधा सिर पर, और होंठों पर हमेशा की आधी मुस्कान – निखिल था।
“कितनी बार बोला है, मुझे ‘बजरंगी’ मत बोला कर।”
आर्यन ने बैग कंधे पर चढ़ाते हुए कहा, पर आवाज़ में गुस्से से ज़्यादा झुंझलाहट थी।
निखिल हँस दिया,
“अरे तू तो बचपन से मंदिर की सीढ़ियों पर ही बड़ा हुआ है, तेरे लिए निकनेम और क्या रखूँ? चल बैठ, कोचिंग के लिए लेट हो रहे हैं।”
बाइक स्टार्ट होते ही ठंडी हवा ने दोनों के बालों में उँगलियाँ फेर दीं।
नीचे बहती पतली‑सी नदी पर बना पुल, दोनों तरफ़ छोटे‑छोटे मकान, और ऊपर पहाड़ी पर टिके हनुमान जी के मंदिर की तरफ़ उठती सीढ़ियाँ – ये सब रोज़ का नज़ारा था, पर आज कुछ अलग लग रहा था; मंदिर के गेट पर पीली जेसीबी खड़ी थी और दो–तीन सफ़ेद गाड़ियों का काफ़िला भी।