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डायरी...

तन्नू और निहारिका ने अच्छी तरह से तहखाने में हर चीज़ की तलाशी ली ताकि उन्हें कुछ अहम सुराग़ मिल जायें जो उन्हें उस चमत्कारी खोपड़ी तक पहुँचा दें अंत में उन्हे तन्नू के अब्बू के दोस्त डॉ. ज़ाकिर की तस्वीर मिली जिसके पीछे उनका पता और फोन नंबर लिखा हुआ था। तन्नू ने अपने मन में सोचा कि "ये एक अहम सुराग़ है जो उन्हें उस चमत्कारी खोपड़ी के बारे में अधिक से अधिक जानकारी दे सकता है"। निहारिका और तन्नू ने तहखाने को अच्छी तरह से बंद कर दिया और ऊपर हॉल की तरफ़ आ गए जहाँ शहनाज़ पहले से उनका इंतजार कर रही थी। उसने तन्नू और निहारिका से पूछा "तुम दोनों नीचे तहखाने में क्या कर रहे थे, इतनी बड़ी हवेली छोटी पड़ गई थी क्या जो कोना ढूंढने तहखाने में पहुंच गए थे"? तन्नू और निहारिका मुस्कुराये फ़िर तन्नू ने कहा "ऐसी कोई बात नहीं है कल रात हुए एक हादसे के बाद हम लोग कुछ ढूंढने के लिए तहखाने में गए थे"।" कौन सा हादसा ", शहनाज़ ने अचंभित स्वरों में पूछा। तन्नू ने विस्तार पूर्वक सारी बातें बताई जिसे सुन शहनाज़ मारे खौफ़ के थर थर काँप रही थी लेकिन उसने सब से अपने डर को छुपाते हुए पूछा" अच्छा तो कुछ मिला क्या नीचे तहखाने में "। तन्नू ने उसे डॉ. ज़ाकिर के बारे में बताया उसने शहनाज़ को बताया कि उसे डॉ. ज़ाकिर की तस्वीर मिली है जिसके पीछे उनका लंदन का पता और फोन नंबर भी लिखा हुआ है।

"ठीक है इस नंबर पर कॉल कर के पता चल जाएगा कि उस अधगले कंकाल और खोपड़ी का राज़ क्या है, अब तुम्हारी अम्मी को दवाई देने का समय हो गया है बाद में डॉ. ज़ाकिर के बारे में पता कर लिया जायेगा, चलो ज़रा दवाई पिलाने में मदद करो", शहनाज़ ने तन्नू और निहारिका से कहा। फिर तीनों तन्नू की अम्मी के कमरे में दवाई पिलाने चले गए।

तन्नू की अम्मी को दवा देने के बाद निहारिका बावर्ची खाने में नौकरों के ऊपर नज़र रखने चली गई इधर तन्नू और शहनाज़ हॉल में चिमनी के पास बैठकर बातें कर रहे थे। शाम हो चली थी और बाहर सूरज की रोशनी फिंकी पड़ने लगी थी ठंड होने के कारण कोहरे ने भी हल्की चादर चढ़ा रखी थी। इतने में अचानक फ़ोन की घंटी बजती है तन्नू फ़ोन का रिसीवर उठाता है और अपने कानो से लगाता है फिर भारी स्वरों में कहता है "हेलो", उधर से भी आवाज़ आती है "हैलो, कौन तनवीर, मैं शहनाज़ का अब्बू बोल रहा हूँ, अब तुम्हारी अम्मी की तबीयत कैसी, कुछ सुधार हुआ उनकी हालत में" शहनाज़ के अब्बू ने तन्नू से पूछा। तन्नू ने अपनी अम्मी का हाल उन्हें बताया और फिर शहनाज़ को अपनी तरफ आने का इशारा किया थोड़ी देर शहनाज़ के अब्बू से बात करने के बाद उनसे बोला" शहनाज़ भी यहीं खड़ी है अंकल लीजिए उससे भी गुफ्तगू कर लीजिए"।

शहनाज़ ने रिसीवर तन्नू के हाँथ से लिया और अपने दायीं तरफ कान से लगा लिया और बोली "हैलो, अब्बू आप कैसे हैं", उधर से आवाज़ आई "मैं तो ठीक हूँ बेटा तुम बताओ तुम कैसी हो","मैं भी अच्छी हूँ यहाँ काफ़ी ख़ुश भी हूँ, आंटी को दवा समय से दे रही हूँ आप इस बात की चिंता न करियेगा", शहनाज़ ने अश्वासन जताते हुए कहा। "मैं जानता हूँ तुम इस मामले में काफ़ी होशियार हो, अच्छा सुनो मैं कल हैदर को भेज रहा हूँ उसके स्कूल की छुट्टियाँ भी हो गईं हैं और वो तुम्हारे पास जाने की ज़िद किए हुए है", शहनाज़ के अब्बू ने उससे कहा।" ठीक है अब्बू हम लोग यहाँ उसका अच्छी तरह से ख़याल रख लेंगे", निहारिका ने एक बार फिर अश्वासन जताते हुए कहा और गुड बाय बोलकर फ़ोन का रिसीवर नीचे रख दिया। उसने तन्नू को हैदर के बारे में बताया उसने कहा कल वो यहाँ पहुँच जाएगा। तन्नू ने भी प्रसन्नता पूर्वक कहा "चलो अच्छा है हम सबका दिल भी लगा रहेगा "।

हैदर 7 साल का था और शहनाज़ का छोटा भाई था जिसके पैदा होने के चार साल बाद उन दोनों की अम्मी का इंतकाल हो गया था जिसके बाद दोनों बच्चों की ज़िम्मेदारी शहनाज़ के अब्बू ने बखूबी निभाई थी। दोनों बच्चों को कभी अपनी अम्मी की कमी नहीं खली। जहाँ शहनाज़ एक सुलझी हुई सुंदर लड़की थी वहीं हैदर बहुत शरारती और हाज़िर जवाब था। उसकी शरारतों के किस्से अक्सर उसके स्कूल से सुनने को मिल जाते थे। अब तक शायद ही कोई ऐसा दिन गुज़रा हो कि हैदर की शरारतों की शिकायत उसके घर तक न पहुँची हो लेकिन पढ़ाई के मामले में हैदर अपनी क्लास में सबसे आगे था शायद यही वजह थी कि उसकी इतनी शरारतों के बावजूद उसे कभी निकाला नहीं स्कूल वालों ने।

रात काफ़ी हो चली थी निहारिका ने तन्नू और शहनाज़ को खाने के लिए बुलाया दोनों बावर्ची खाने के सामने वाले हॉल में रखी डाइनिंग टेबल पर खाने के लिए बैठ गए। खाना खाने के बाद तन्नू ने शहनाज़ को रोज़ की तरह गुड नाइट कहा और अपने कमरे में सोने चला गया थोड़ी देर बाद उसके कमरे निहारिका ने रोज़ की तरह पानी का जग और ग्लास रख दिया। तन्नू ने निहारिका को आते और पानी रख कर जाते तक नहीं देखा क्यूँकि वह उस खोपड़ी और अधगले कंकाल के बारे में सोच रहा था, वो डॉ. ज़ाकिर और उनके कंकाल से संबंध के बारे में सोच रहा था, वो सोच रहा था कि आखिर ऐसा क्या हुआ होगा जो डॉ. ज़ाकिर अचानक ही लंदन निकल गए हो सकता है उन्हें इस ज़िंदा लाश के बारे में जानकारी हो तभी उन्होंने अचानक ही लंदन की यूनिवर्सिटी में पढ़ाने का आवेदन किया हो और उनका आवेदन स्वीकार कर लिया गया हो। तन्नू के सोचते सोचते ही काफ़ी रात बीत गई कि तभी अचानक बड़ी ज़ोरों की आवाज़ सुनाई पड़ी "धड़ाक", जैसे कहीं किसी ने दरवाज़े पर बहुत ज़ोर से एक लात मार दी हो और दरवाज़ा खुल गया हो।

रात में अचानक "धड़ाक" से ज़ोर की आवाज़ हुई जैसे किसी ने दरवाज़े पर एक ज़ोरदार लात मारी हो। तन्नू आवाज़ सुनते ही अपने बिस्तर से उठ कर उस ओर भागता है जहाँ से ये आवाज़ आई थी। उसकी नज़र हॉल में घूम रही अंग्रेज अफसर की बिना सिर के अधगले कंकाल पर पड़ती है, जो बेताबी से इधर उधर घूम रहा था। उसे अपने सिर की तलाश थी जिसके बिना वो शायद अधूरा सा था। तन्नू एक अलमारी के पीछे छुपकर सारा नज़ारा देख रहा था। ये मंज़र किसी का भी दिल दहलाने के लिए काफ़ी था, लेकिन तन्नू ने जैसे अपना दिल पत्थर का बना लिया हो। वो छुपकर उस कंकाल को आगे पीछे चक्कर लगाते हुए देख रहा था। तन्नू ने अपने मन में सोचा "अगर इस कंकाल में इतनी शक्ति मौजूद है, तो यह अपने सिर तक ख़ुद क्यूँ नहीं पहुंच जाता। जब मरने के बाद भी यह ज़िंदा हो कर घूम सकता है तो इसमें इतनी तो शक्ति होनी चाहिए कि अपनी खोपड़ी का पता लगा ले।"

तन्नू वहाँ खड़ा काफ़ी देर इन सब बातों पर गंभीरता से सोच रहा था कि अचानक घड़ी का घंटा तीन बजने की सूचना देता है और तीन बार बजता है जिसके बजते ही वह अंग्रेजी कंकाल अपने ताबूतनुमा बक्से में जाकर लेट जाता है।

" समय के मामले में अंग्रेजों से ज़्यादा पक्का कोई नहीं होता है ये बात इस मुर्दा कंकाल ने भी साबित कर दी। ठीक तीन बजते ही अपने ताबूत में पहुंच जाता है। तहखाने का भी दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया", तन्नू के दिमाग में ये सारी बातें चल रही थी, फिर उसने अपने कमरे में जाकर आराम करने का मन बना लिया क्यूँकि रात भर काफ़ी भागदौड़ हो गई थी।

सुबह करीब आठ बजे तन्नू की नींद खुलती है वह रोज़ की तरह नहा धोकर नाश्ता करने डाइनिंग टेबल पर पहुंचता है जहाँ उसे पता चलता है कि आज सुबह ही निहारिका के गाँव से बुलावा आया था और उसे जाना पड़ा क्यूँकि उसकी माँ की तबीयत काफ़ी खराब थी, शायद अपनी आखिरी सांसे ले रही हैं। तन्नू ने इस बात पर अफसोस जताया और शहनाज़ की तरफ़ देखा और कहा "अब तो अम्मी की सारी ज़िम्मेदारी हम दोनों पर ही आ गयी, निहारिका के रहने से कुछ तो राहत मिल ही जाती थी"।

"चिन्ता क्यूँ करते हो आज हैदर आ ही रहा है उसके साथ सावित्री आंटी भी आ रही हैं, जिन्होंने हैदर को अब तक संभाला है उनके आने से काफ़ी मदद मिलेगी, उन्हें दवाइयों की अच्छी जानकारी है तथा मरीज़ों की देखभाल भी अच्छी तरह से कर लेती हैं, तुम्हारी अम्मी को कोई दिक्कत नहीं होगी ", शहनाज़ ने आश्वासन जताते हुए कहा।

तन्नू अब थोड़ा चिन्ता मुक्त सा हो गया था और उसने अपना नाश्ता किया फ़िर दोनों उसकी अम्मी के कमरे में चले गए, उनकी दवा का समय हो गया था।

कमरे में तन्नू ने अम्मी की अलमारी को खोला उनके लिए एक साफ़ चादर निकालने के लिए जहाँ उसे एक पुरानी डायरी मिलती है जो उसके अब्बू की थी, वो उस डायरी को अपने कोट के जेब में रखते हुए अलमारी से एक नई चादर निकाल कर बेड पर बिछा देता है और दोनों उसकी अम्मी को साफ़ सुथरा कर के लेटा देते हैं। कुछ देर बाद उन्हें नींद आ जाती है क्यूँकि दवा अपना असर दिखा रही थी।

तन्नू वहाँ से सीधा अपने कमरे में जाता है और उस डायरी को निकाल कर पढ़ने लगता है, उस डायरी में लिखा था "मई 18, सन् 1972, मैं और मेरे मित्र डॉ. ज़ाकिर ने एक अविश्वसनीय खोज की है, हम लोगों को यहाँ हिमालय में एक बहुत पुरानी गुफ़ा मिली है जिसमें एक अंग्रेज़ी अफसर का बर्फ़ में जमा हुआ कंकाल मिला है, जिसके अध गले शरीर पर अरबों रुपए के कीमती आभूषण लदे हुए थे। यही नहीं उस कंकाल के स्थान में खुदाई करने पर काफ़ी कीमती गहने, मूर्तियां तथा हीरे ज्वाहरात की प्राप्ति हुई है। हमने कंकाल को सावधानी से एक जगह रख दिया है और पास के गाँव से एक ताबूत नुमा बक्सा बनवाने का आदेश भी दे दिया है। इन सभी बातों में सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि अध गले कंकाल का सिर उसके हांथों में रखा हुआ था, जिसे देखकर लगता है कि शायद इसका सिर काट कर किसी ने अलग कर दिया हो तथा इसकी खोपड़ी जो आधी गल गई है उसकी आंखों की जगह लाल रूबी नुमा कीमती पत्थर सा कुछ है, जो इसे आम इंसानी खोपड़ी से बिलकुल अलग सा कर देता है। "

तभी अचानक गाड़ी का तेज़ हार्न बजता है और तन्नू उस डायरी को अपने तकिया के नीचे छुपा, अपने कमरे से बाहर की ओर निकलकर हॉल की तरफ़ पहुँचता है।

शहनाज़ पहले से ही मुख्य द्वार पर पहुंच कर हैदर के स्वागत के लिए खड़ी हुई थी, तन्नू भी उसके बगल में आ कर खड़ा हो गया। गाड़ी रुकती है और उसमें से एक छोटा बालक "आपा" बोलते हुए निकलकर शहनाज़ के गले से लिपट जाता है। गाड़ी से एक वृद्ध महिला भी बाहर निकल कर सामने खड़ी हो जाती हैं। तन्नू उन्हें देखकर सोचता है ये ज़रूर सावित्री देवी होंगी जिनका ज़िक्र कल रात में शहनाज़ ने किया था।

एक दूसरे से मिलने के बाद सभी लोग हवेली के अन्दर आ जाते हैं और हॉल के सोफ़े पर बैठ कर बातें करने लगते हैं।

तन्नू, हैदर और सावित्री से मिलकर काफ़ी ख़ुश होता है, वह हैदर को एक खिलौने वाली कार भेंट करता है। हैदर यह देखकर काफ़ी उत्साहित हो जाता है। शहनाज़ ने सावित्री देवी को तन्नू की अम्मी के बारे में सारी जानकारी दे रखी थी यहाँ तक कि उन्हें यह बाते शहनाज़ के अब्बू ने पहले ही बता दी थी लेकिन शहनाज़ और सावित्री देवी तन्नू की अम्मी की ही बातें कर रही थीं। थोड़ी देर बाद दोनों वहाँ से तन्नू की अम्मी के कमरे में चली गईं। तन्नू और हैदर एक दूसरे के साथ ही बैठे रहे और कार के साथ खेल रहे थे।

देखते ही देखते काफ़ी समय बीत गया अब शाम हो चली थी और सूर्य की किरणों का प्रकाश धीमा पड़ गया था।

हवेली के ऊपर रूहानी ताकत का साया होने की वजह से रात का भोजन नौ बजे तक संपन्न हो जाता था ताकि नौकर भी फुर्सत पा कर हवेली के पीछे बने कॉटेजस में आराम करें। सारे नौकर रात के वक़्त हवेली के आस पास भी जल्दी नहीं आते थे। हालांकि उस रूहानी ताकत ने अब तक किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया था।

शहनाज़, सावित्री और हैदर को सख्त हिदायत दे देती है कि किसी भी हाल में 12 बजे के बाद अपने कमरे से बाहर न निकले। सावित्री और हैदर के सोने का इंतज़ाम एक ही कमरे में कर दिया गया था। पहले तो वह अध गला अंग्रेजी कंकाल केवल तहखाने तक ही सीमित था और उसी तहखाने के रौशनदान से ही नौकरों ने देखा था लेकिन जब से तन्नू और शहनाज़ ने तावीज़ों से बँधा हुआ ताला तोड़ दिया तब से वह रूहानी ताकत गुस्से में हॉल के आस पास, कॉरिडोर में तथा कभी कभार सीढ़ियों के आस पास भी घूमता रहता है।

सावित्री ये सुनकर काफ़ी भयभीत हो गई लेकिन हैदर शहनाज़ की बातों को सुनकर उसकी हँसी उड़ा रहा था।

"छुटके मियां, जब तुम्हारा उससे सामना होगा ना तब पता चलेगा", शहनाज़ ने हैदर की ओर देखते हुए कहा।

"अरे ये भूत वूत कुछ नहीं होता आपा , मैं तो कितनी बार अंधेरे में निकल जाता हूँ जहाँ सब कहते हैं भूत है लेकिन मुझे तो नहीं दिखता है कोई, उल्टा मैंने कितनों को भूत बनकर डराया है ", हैदर ने मासूमियत भरे अंदाज़ में कहा। सावित्री और शहनाज़ इस बात पर हंसने लगे।

रात में खाना पीना करने के बाद सभी अपने अपने कमरों में आराम करने चले गए। तनवीर भी अपने कमरे में गया और अपना नाइट सूट पहन कर बिस्तर पर लेट कर डायरी के बाकी भागों को पढ़ रहा था -

"अध गला कंकाल और खज़ाना मिलने के एक दिन बाद ही हमारी टीम के एक साथी के साथ की अनोखे रूप से मौत हो गई, उसकी आँखें बाहर की ओर निकल गई थी जैसे सूज कर मोटी हो गई हों। उसका निधन दिल का दौरा पड़ने से हुआ था, लेकिन हम सबकी समझ में ये नहीं आया कि आखिर उसने ऐसा क्या देख लिया था कि उसकी आँखें फट कर बाहर की ओर आ गईं थीं, चहरे पर अनजाने से खौफ़ का भाव था। हम सबके लिए ये एक दुखद घटना थी और एक बड़ा नुकसान भी क्यूँकि उसी सहयोगी ने सबसे पहले गुफ़ा की खोज की थी, वह काफ़ी होनहार नौजवान था जिसने डॉ ज़ाकिर के लिए कई रहस्यमयी स्थानों की खोज की थी। खुदाई का काम लगातार जारी था क्यूँकि ना तो इतना समय मेरे पास था और न ही डॉ ज़ाकिर के पास इसलिए अपने साथी के गुज़र जाने के ग़म को एक तरफ रख कर पूरी टीम बस उस बाकी के ख़ज़ाने को निकालने में लगी हुई थी क्यूँकि अब तक ख़ज़ाने के बारे में आस पास भी खबरें फैल ही गईं थीं, ऐसा उन पास के इलाके के मज़दूरों की वजह से हुआ जिन्हें डॉ ज़ाकिर और मेरी टीम के सदस्यों ने किराए पर खुदाई करने के लिए बुलाया था। हालाँकि पास के गांव से वह गुफा करीब 300km दूर थी और पत्थरीला रास्ता होने की वजह से कोई भी यातायात का साधन उपलब्ध नहीं था सिवाए घोड़ों और खच्चरों के अलावा। हमने भी काफ़ी घोड़े और खच्चर पास के गांव से किराए पर ले लिया था और गाँव में ही डॉ ज़ाकिर की टीम के सदस्य गाड़ियां लेकर हमारे लौटने का इंतज़ार कर रहे थे। पहाड़ी इलाकों पर यातायात का सबसे अच्छा साधन घोड़े और खच्चर ही होते हैं।

एक दिन और बीत गया जो काफ़ी थकाने वाला था, हमने काफ़ी कुछ खोया लेकिन जो हमने पाया है ये हमारे ज़िंदगी के घावों पर मरहम लगाने के लिए काफ़ी है।

अगली सुबह भी काफ़ी शोर गुल के साथ शुरू हुई, अपने टेंट से बाहर आने के बाद पता चला कि एक और रहस्यमयी मौत हो गई है, बिलकुल पहले साथी सुरेश की तरह ही जैकब की भी मौत हो गई थी, उसकी आँखें भी फट कर बाहर की ओर निकल आईं थीं और उसके चेहरे पर भी वैसे ही डर का भाव था। हम सबकी समझ में ये नहीं आ रहा था कि इन दोनों की रहस्यमयी मौत के पीछे आखिर वजह क्या थी, सुरेश और जैकब के साथ चार और लोग थे जिन्होंने इस गुफा को ढूंढा था हो न हो उन बाकी बचे चार लोगों की ज़िन्दगी भी खतरे में थी। मैंने ये बात सोची और इसका ज़िक्र डॉ ज़ाकिर से अकेले में किया ताकि बाकी के टीम मेम्बर्स में अफरा तफरी ना मचे। डॉ ज़ाकिर भी इस बात से सहमत थे लेकिन एक दिन की खुदाई का काम और बाकी था इसलिए हम दोनों ने इस बात पर चुप रहने का ही फैसला किया हालांकि हम दोनों ने ये निर्णय लिया कि आज की रात हम दोनों ही इस रहस्य से पर्दा उठाएंगे कि आखिर इन दोनों मौतों के पीछे राज़ क्या है, इसके बाद हम दोनों ही गुफा की ओर खुदाई करने निकल गए।

गुफा की खुदाई में प्राप्त आखरी सोने की मूर्ति निकाल कर उसके छः फुट खुदाई और की गई जब कुछ भी ना मिला तो हम सबको यकीन हो गया कि अब और कुछ नहीं मिलने वाला है। आज का दिन कल के हिसाब थोड़ा ज़्यादा थकाने वाला था। हम सभी टीम के सदस्यों ने आज रात आग के पास जश्न मनाया और रात को शराब भी पी क्यूँकि आज हम सबका काम यहां समाप्त हो गया था । हालांकि डॉ ज़ाकिर और मैंने खुद को होश में रखा है क्यूँकि रात को होने वाली अनहोनी से रूबरू होने का मन बना लिया था। रात को हम दोनों ही अपने अपने तंबुओं से आस पास के पहाड़ों पे और तंबुओं पर नज़र रखे हुए थे। बीच बीच में अपने तंबुओं की जालीदार खिड़की से टार्च जला बुझाकर एक दूसरे को इशारा भी कर दिया करते थे कि दोनों जगे हुए हैं। उस रात काफ़ी शीत लहर चल रही थी ऊपर पहाड़ों पर भी मौसम काफ़ी खराब था जिस वजह से कोहरे ने गहरी चादर सी चढ़ा दी थी।

मैंने अपनी घड़ी में देखा तो सुबह के करीब एक बजा हुआ था। हम दोनों ने अपना ध्यान ज़्यादा तर रमेश और अक्रम के तम्बू पर केंद्रित कर रखा हुआ था क्यूँकि ये दोनों भी सुरेश की टीम के वह सदस्य थे जिन्होंने इस गुफा के अंदर सबसे पहले प्रवेश किया था। " सुबह करीब दो बजे कुछ हलचल सी दिखाई दी थी रमेश और अक्रम के तम्बू में, एक चमकदार लाल रोशनी से तम्बू प्रकाश में डूब सा गया था, मैं और डॉ ज़ाकिर भागते हुए उस तम्बू तक पहुँचे लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। रमेश और अक्रम भी उसी तरह से चल बसे थे जैसे उनके बाकी के दो साथी गुज़र गए थे। डॉ. ज़ाकिर और मैं दोनों ही हैरान से खड़े होकर सोचते रह गए कि आखिर उस तेज़ लाल रोशनी का दिखाई देने का क्या मतलब हो सकता है। उसके जलते ही अचानक दो मौतें और हो गईं।

उसी दिन सुबह होते ही हम लोग उस रहस्यमयी गुफ़ा से कूच करने की तैयारी में जुट गए थे। सारा सामान सही तरीके से एकत्र कर के पास ही के गाँव की ओर जाने की तैयारी थी। पास का गाँव भी करीब तीन सौ किलोमीटर दूर था जहाँ पहुंचने में भी कई दिन लगते। रास्ते में रहस्यमयी तरीके से दो लोगों की मौत और हो गई, अब पास के गाँव वाले भी काफ़ी डरे हुए थे, उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं था लेकिन मैंने और डॉक्टर ज़ाकिर ने अपनी छान बीन चालू रखी। जहाँ भी हमारी टीम पड़ाव डालती थी हमलोग रात में पेहरेदारी करने लगते पिछली दो रातों से हमसे चूक होती आयी लेकिन आज की रात हम दोनों अपनी आँखे खुली रखेंगे।

©IvanMaximusEdwin


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